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एक ऐसे शायर की कहानी जो चाहता था की खून थूके, जिसने अमरोहा से पाकिस्तान का सफर तय किया, और अपनी ख़्वाहिश पर दम तोड़ा…

मैं जो हूँ ‘जौन-एलिया’ हूँ जनाब

इस का बेहद लिहाज़ कीजिएगा

Mtv भारत/न्यूज़ डेस्क: जी हाँ हम बात कर रहे हैं जनाब जॉन एलिया की जिनकी शायरी को हर कोई पसंद करता है, जॉन एलिया ने ऐसे ऐसे शेर कहे जिसे सुनकर और पढ़कर लोग थकते नहीं उनके हर एक शेर मे वास्तविकता और सादगी के साथ उनकी जिंदगी ऐसे झाँकती है जैसे हल्की बारिश मे दरिंचे मे से परिंदे |

अपने सब यार काम कर रहे हैं
और हम हैं कि नाम कर रहे हैं

जॉन एलिया का जन्म 14 दिसंबर 1931 को उत्तर प्रदेश के अमरोहा में एक प्रमुख परिवार में हुआ था। वह अपने भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। उनके पिता अल्लामा शफ़ीक़ हसन एलिया एक नजूमी और शायर होने के अलावा कला और साहित्य से भी गहरे जुड़े थे। इस सीखने के माहौल ने उसी तर्ज पर जॉन को भी एक शायर बना दिया और ऐसा शायर बनाया जिसकी ज़िंदगी की कहानी आप उसकी गजलों मे महसूस कर सकते हैं। उन्होंने अपनी पहली उर्दू गज़ल महज 8 साल की उम्र में लिखी थी।

अख़लाक़ न बरतेंगे मुदारा न करेंगे
अब हम किसी शख़्स की परवाह न करेंगे
कुछ लोग कई लफ़्ज़ ग़लत बोल रहे हैं
इसलाह मगर हम भी अब इसलाह न करेंगे
ग़ुस्सा भी है तहज़ीब-ए-तआल्लुक़ का तलबगार
हम चुप हैं भरे बैठे हैं गुस्सा न करेंगे
कल रात बहुत ग़ौर किया है सो हम ए “जॉन”
तय कर के उठे हैं के तमन्ना न करेंगे

 

जॉन एलिया ने ऐसे ऐसे शेर लिखे जो आज की तारीख मे लिखे जाना बहुत मुश्किल है, जॉन जब सोलह साल के थे तो देश का बंटवारा हो गया| एलिया के तरक्कीपसंद दिल को बात चुभ रही थी पर मजबूरी को आखिरी सच्चाई समझने वाले जौन एलिया ने तक्सीमी लकीरों को हाथों की लकीर मान लिया और न चाहते हुए भी 1957 में पाकिस्तान चले गए और कराची में बस गए| जॉन पाकिस्तान मे ही ज़िंदगी बसर करने लगे लेकिन वहाँ ये बहुत कम लोग जानते थे की जॉन एलिया नायाब हीरा हैं को पाकिस्तान का नाम रोशन कर सकते हैं | लेकिन जॉन ने पाकिस्तान मे कई बरस गुमनामी की ज़िंदगी बसर की | जॉन एलिया जाने को तो साल 1957 में कराची, पाकिस्तान चले गए थे पर उनके दिल में अमरोहा और हिंदुस्तान ता-उम्र महकता रहा | वो हिंदुस्तान तो आते जाते रहे पर पाकिस्तान हिजरत करने के बाद दो ही बार अमरोहा आ सके पहली बार 1978 में और दूसरी बार 1999 में| उनकी शायरी में अमरोहा से बिछड़न का दर्द कुछ ऐसे नज़र आता है|

 

हम तो जैसे यहां के थे ही नहीं,
धूप के थे सायबां के थे ही नहीं.

अब हमारा मकान किस का है,
हम तो अपने मकान के थे ही नहीं.

उस गली ने सुन के ये सब्र किया,
जाने वाले इस गली के थे ही नहीं.

 

पाकिस्तान मे ही जॉन एलिया की मुलाकात पत्रकार जाहिदा हिना से मुलाकात हुई | दोनों की मुलाक़ातों का सिलसिला बढ़ता गया और एक दिन दोनों का इश्क़ परवान चाड गया| और जॉन की जाहिदा से शादी हुई और तीन बच्चे भी हुए पर जॉन एलिया बंधने वाले शख्स का नाम नहीं था| जल्द ही शादी भी गले की जकड़न लगने लगी और 1984 आते-आते तलाक़ हो गया | तलाक के बाद जॉन एलिया इतने टूट चुके थे की खुद को बर्बाद करने पर आमादा हो गए शराब पीने लगे और मौत को मज़ाक समझने लगे| बताने वाले बताते हैं की हर वक़्त वो मौत की ख़्वाहिश करते थे अकेलापन उन्हे पसंद था| बीवी बच्चों से बिचदने का गम उन्हे बहुत सताता था| उनका ये दर्द और अकेलापन जॉन की इस गजल मे बयान होता है…

उम्र गुज़रेगी इम्तहान में क्या?
दाग ही देंगे मुझको दान में क्या?
मेरी हर बात बेअसर ही रही
नुक्स है कुछ मेरे बयान में क्या?
बोलते क्यो नहीं मेरे अपने
आबले पड़ गये ज़बान में क्या?
मुझको तो कोई टोकता भी नहीं
यही होता है खानदान मे क्या?
अपनी महरूमिया छुपाते है
हम गरीबो की आन-बान में क्या?
वो मिले तो ये पूछना है मुझे
अब भी हूँ मै तेरी अमान में क्या?
यूँ जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या?
ये मुझे चैन क्यो नहीं पड़ता
एक ही शख्स था जहान में क्या?

ऐसा नहीं की जॉन एलिया को ज़िंदगी मे प्यार नही हुआ जॉन की ज़िंदगी मे एक वक़्त ऐसा भी आया जब जॉन को एक लड़की खत लिखा करती थी और जॉन भी उसके खातों का जवाब दिया करते थे| ये सिलसिला लंबे अरसे तक चलता रहा शुरू मे तो जॉन उस लड़की से मुहब्बत का दिखावा करते रहे, लेकिन जब जॉन को ये बात पता चली की लड़की जॉन को खून थूकते हुए खत लिख रही है उसे टीबी की बीमारी है तो फिर जॉन को भी उस लड़की से सच्ची मुहब्बत हो गई| फिर जॉन भी ये ख़्वाहिश करने लगे की वो भी खून थूकने के आदि हो जाएँ उन्हे भी टीबी की बीमारी हो जाये यानि जॉन ये दुआ करते थे की वो भी खून थूकने लगे| और हुआ भी ऐसा ही जॉन को खून थूकने की बीमारी (टीबी) हो गई जिससे  8 नवंबर, 2002  को उनकी मौत कारांची मे हो गई|

तुम खून थूकती हो ये सुनकर ख़ुशी हुई,
इस रंग इस अदा में पुरकार ही रहो.

 

मेरे कमरे का क्या बयां कि यहां,
खून थूका गया है शरारत में.

 

किसी भी मशहूर शख्स की ज़िंदगी उसके चाहने वालों के लिए के लिए अपने आप में एक मुकम्मल किताब होती है। आज जब जॉन हमारे बीच नहीं हैं, तो उनकी नज़्मों और ग़ज़लों के अलावा उनके ज़ाती ज़िंदगी के किस्से भी बड़े लगाव के साथ सुने सुनाए जाते हैं। मुझे भी कुछ दिनों पहले जॉन के दीवाने एक दोस्त ने एक किस्सा सुनाया था उनके बारे में। आज़ादी से सोलह साल पहले पैदा हुए जॉन के बारे में कहा जाता है कि शुरू से ही दो चीज़ें उन्हें बड़ी दिलकश लगती थीं। चूंकि उन दिनों आज़ादी की लड़ाई जारी थी, तो उन्होंने कई जवान लड़कों को जान देते देखा था। तो पहला शौक जो उन्हें था वो था भरी जवानी में मर जाने का जो, शुक्र खुदा का कि पूरा न हो सका। उनकी एक गजल जो मुझे बेहद पसंद है …

 

बे-क़रारी सी बे-क़रारी है

वस्ल है और फ़िराक़ तारी है

जो गुज़ारी न जा सकी हम से

हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है

निघरे क्या हुए कि लोगों पर

अपना साया भी अब तो भारी है

बिन तुम्हारे कभी नहीं आई

क्या मिरी नींद भी तुम्हारी है

आप में कैसे आऊँ मैं तुझ बिन

साँस जो चल रही है आरी है

उस से कहियो कि दिल की गलियों में

रात दिन तेरी इंतिज़ारी है

हिज्र हो या विसाल हो कुछ हो

हम हैं और उस की यादगारी है

हादसों का हिसाब है अपना

वर्ना हर आन सब की बारी है

ख़ुश रहे तू कि ज़िंदगी अपनी

उम्र भर की उमीद-वारी है

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